भारत में बैटरी रीसाइक्लिंग को लेकर ‘ज़ीरो वेस्ट’ यानी बिल्कुल भी वेस्ट न बचने का लक्ष्य रखा गया है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह अभी व्यावहारिक रूप से मुश्किल है। बैंगलुरु की कंपनी मेटास्टेबल मैटेरियल्स के फाउंडर शुभम विश्वकर्मा का कहना है कि पूरी तरह ज़ीरो वेस्ट करना संभव नहीं है, बल्कि ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि बैटरी से जितनी ज्यादा कीमती धातुएं मिल सकें, उतनी वापस ली जाएं।
विश्वकर्मा ने बताया कि रीसाइक्लिंग की हर प्रक्रिया में थोड़ा-बहुत अवशेष या वेस्ट रह ही जाता है, जैसे कि डस्ट या उपयोग किए गए सॉल्वेंट। “ज़ीरो वेस्ट” का मतलब है कि जो भी बचा हुआ पदार्थ हो, वह हानिकारक न हो और उसे दोबारा किसी उपयोग में लाया जा सके।
मेटास्टेबल की नई तकनीक से 95% तक कॉपर और लिथियम, और 90% से अधिक निकेल और कोबाल्ट जैसी धातुएं दोबारा हासिल की जा सकती हैं। हालांकि, इन तत्वों को फिर से बैटरी बनाने लायक बनाने में कुछ मात्रा खो जाती है।
भारत में बैटरी रीसाइक्लिंग को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यहां बहुत सी पुरानी बैटरियां अनौपचारिक सेक्टर में चली जाती हैं या स्क्रैप के रूप में बाहर भेज दी जाती हैं। साथ ही, यह उद्योग पूंजी और मात्रा पर निर्भर है — यानी रॉ मैटीरियल और धातु की कीमतों में उतार-चढ़ाव का सीधा असर काम पर पड़ता है।
सरकार ने 2022 में बैटरी वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स बनाए, जिससे कंपनियों पर यह जिम्मेदारी आई कि वे अपनी बैटरियों को रीसायकल करवाएं। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि नियमों में अभी भी कई सुधार की जरूरत है, क्योंकि सभी तरह की बैटरियों के लिए एक जैसे रिकवरी लक्ष्य तय किए गए हैं।
सरकार ने 1,500 करोड़ रुपये की रीसाइक्लिंग स्कीम भी शुरू की है ताकि कंपनियों को प्रोत्साहन मिल सके। उद्योग विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर सरकार नई बैटरियों में कुछ प्रतिशत रीसायकल की गई धातु के उपयोग को अनिवार्य कर दे, तो इससे इस क्षेत्र को स्थिरता मिलेगी।
मेटास्टेबल का कहना है कि “ज़ीरो वेस्ट” का मतलब यह नहीं कि कोई भी वेस्ट न बचे, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि हर मूल्यवान धातु वापस मिल जाए और हानिकारक चीजें पर्यावरण में न जाएं।
अगर भारत रीसाइक्लिंग और रिफाइनिंग दोनों में मजबूत होता है, तो वह एशिया का एक बड़ा “बैटरी रीसाइक्लिंग हब” बन सकता है, जैसे पहले तेल रिफाइनिंग के क्षेत्र में हुआ था।