जैसे-जैसे लैब-ग्रोन डायमंड्स (प्रयोगशाला में तैयार हीरे) वैश्विक स्तर पर तेज़ी से विस्तार कर रहे हैं, भारत इस श्रेणी की एक केंद्रीय ताकत के रूप में उभर रहा है। दुनिया के लगभग 90 प्रतिशत हीरों की कटिंग और पॉलिशिंग में भारत की मजबूत पकड़ के सहारे, देश हीरों को दुर्लभ और जीवन में एक बार होने वाली खरीद से आगे ले जाकर डिज़ाइन-आधारित, रोज़मर्रा की लग्ज़री में बदल रहा है।
वैश्विक स्तर पर लैब-ग्रोन डायमंड्स का बाज़ार आकार लगभग 25–29 अरब डॉलर से बढ़कर अगले दशक में 75–100 अरब डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। यह बदलाव इस श्रेणी की धारणा और उपभोग के तरीके में संरचनात्मक परिवर्तन का संकेत देता है।
ब्रांड्स के बीच एक बदलाव साफ दिखाई देता है—अब हीरे केवल शादियों या जीवन के बड़े अवसरों तक सीमित नहीं हैं। इन्हें सेल्फ-रिवॉर्ड, डेली वियर, करियर उपलब्धियों, एनिवर्सरी और यहां तक कि स्टाइल रिफ्रेश के लिए भी खरीदा जा रहा है।
ज्वेलबॉक्स की को-फाउंडर विदिता कोचर जैन कहती हैं, “हम अवसर-आधारित खरीद से इंटेंट-आधारित खरीद की ओर स्पष्ट बदलाव देख रहे हैं। आज का लैब-ग्रोन डायमंड ग्राहक अधिक युवा और आत्मनिर्भर है। ज्वेलरी को अब जीवन में एक बार की संपत्ति नहीं, बल्कि व्यक्तिगत स्टाइल के विस्तार के रूप में देखा जा रहा है।”
यह बदलाव सिर्फ खरीदारों की प्रोफाइल तक सीमित नहीं है, बल्कि खरीद की आवृत्ति में भी दिख रहा है। कई संस्थापकों के अनुसार, रीपीट परचेज़ बढ़ रहे हैं—जो पारंपरिक डायमंड ज्वेलरी में कम देखने को मिलता था।
Augmont की Akoirah की फाउंडर नमिता कोठारी के मुताबिक, अब 70 प्रतिशत से अधिक खरीदार 24–45 आयु वर्ग के हैं, जिनमें सेल्फ-पर्चेज़ करने वाली महिलाएं और ब्राइडल के बाहर बार-बार खरीद करने वाले ग्राहक शामिल हैं।
Solitario Diamonds के CEO और फाउंडर रिकी वसंदानी इसे मानसिकता में बदलाव बताते हैं। वे कहते हैं, “ग्राहक अब करियर जीत, यात्रा की यादों या सिर्फ स्टाइल अपडेट के लिए खरीद रहे हैं। सोच एसेट-वैल्यू से हटकर इमोशनल वैल्यू, डिज़ाइन और जिम्मेदार लग्ज़री की ओर गई है।”
भारत की मैन्युफैक्चरिंग बढ़त
नेचुरल हीरों के व्यापार में भारत की कटिंग-पॉलिशिंग की बादशाहत लंबे समय से जानी जाती है। लैब-ग्रोन युग में यही इकोसिस्टम मजबूत प्रतिस्पर्धी बढ़त में बदल गया है।
कटिंग, पॉलिशिंग, ग्रेडिंग और ज्वेलरी मैन्युफैक्चरिंग तक एकीकृत पहुंच के कारण, भारतीय ब्रांड डिज़ाइन-टू-मार्केट टाइमलाइन को छोटा कर पाते हैं, कलेक्शंस के साथ प्रयोग कर सकते हैं और क्वालिटी व प्राइसिंग पर बेहतर नियंत्रण रख सकते हैं। इससे ज्वेलरी फैशन की तरह—तेज़, ट्रेंड-लेड और रिपीटेबल—बन जाती है, न कि केवल विरासत वाली स्थिर लग्ज़री।
वसंदानी कहते हैं, “भारत का डायमंड-प्रोसेसिंग इकोसिस्टम निर्णायक लाभ है। यह तेज़ कस्टमाइज़ेशन, जल्दी लॉन्च और शिल्प से समझौता किए बिना सुलभ कीमतें संभव बनाता है।”
यह बढ़त निर्यात आंकड़ों में भी दिखती है। 2024–25 में भारत से पॉलिश्ड लैब-ग्रोन डायमंड्स के निर्यात वॉल्यूम तेज़ी से बढ़े, जबकि मूल्य वृद्धि अपेक्षाकृत धीमी रही—जो क्षमता बढ़ने के साथ कीमतों में दबाव का शुरुआती संकेत है। सूरत, जहां 8 लाख से अधिक डायमंड वर्कर्स हैं, इस बदलाव का केंद्र बना हुआ है।
दुर्लभता से परे मूल्य की नई परिभाषा
लैब-ग्रोन डायमंड्स का सबसे बड़ा बदलाव दार्शनिक है। दुर्लभता या मज़बूत रीसेल नैरेटिव के बिना, ब्रांड्स को मूल्य को नए सिरे से परिभाषित करना पड़ रहा है—और उपभोक्ता इसे स्वीकार कर रहे हैं।
कोचर जैन कहती हैं, “लैब-ग्रोन डायमंड्स में मूल्य प्रासंगिकता और उपयोगिता से तय होता है, न कि दुर्लभता से। ट्रांसपेरेंसी, सर्टिफिकेशन, कट क्वालिटी और डिज़ाइन अब दशकों बाद की कीमत से अधिक मायने रखते हैं।”
लाइमलाइट लैब ग्रोन डायमंड्स की (Limelight Lab Grown Diamonds) की फाउंडर और एमडी पूजा माधवन इसे पुराने सोच से स्पष्ट अलगाव मानती हैं। वे कहती हैं, “हमारे ग्राहक रीसेल के लिए नहीं खरीदते। वे वियरएबिलिटी, इमोशनल कनेक्शन और ईमानदार कीमत के लिए खरीदते हैं। हीरे अब लॉक्ड-एसेट्स से आगे बढ़कर रोज़मर्रा के स्टाइल के करीब आ गए हैं।”
कुछ ब्रांड एक्सचेंज और बायबैक जैसी नीतियों के जरिए भरोसे की खाई भी पाट रहे हैं। Lucira के को-फाउंडर रूपेश जैन के अनुसार, ऐसी नीतियां झिझक कम करती हैं और आत्मविश्वास से खरीद को बढ़ावा देती हैं—भले ही लैब-ग्रोन डायमंड्स की रीसेल वैल्यू माइनड स्टोन्स से कम हो।
ज्वेलरी कैसे बनी लाइफस्टाइल खरीद
इस बदलाव के कारोबारी निहितार्थ बड़े हैं। औसत ऑर्डर वैल्यू स्थिर रहने के बावजूद, संस्थापकों का मानना है कि लाइफटाइम कस्टमर वैल्यू सबसे बड़ा अवसर है।
वसंदानी कहते हैं, “ज्वेलरी अब दशक में एक बार की खरीद नहीं रही। उपभोक्ता जीवन के अलग-अलग चरणों में कई बार खरीद रहे हैं।” ग्राहक अब रिंग्स, स्टड्स, पेंडेंट्स और सॉलिटेयर्स का वॉर्डरोब बना रहे हैं—डिज़ाइन्स अपग्रेड कर रहे हैं और गिफ्टिंग के लिए लौट रहे हैं।
माधवन भी इसी रुझान की पुष्टि करती हैं: “हमें एक ही साल में ज़्यादा रीपीट परचेज़ दिखते हैं। ग्राहक माइलस्टोन का इंतज़ार नहीं करते, बल्कि कैटेगरी एक्सप्लोर करते हैं जिससे फाइन ज्वेलरी का स्केल fundamentally बदल जाता है।”
यह व्यवहारिक बदलाव कुल एड्रेसेबल मार्केट को भी बढ़ा रहा है। शहरी अनुमानों के अनुसार, कुछ शहरों में लैब-ग्रोन डायमंड्स डायमंड ज्वेलरी बिक्री का 8–10 प्रतिशत हिस्सा बन चुके हैं, और जागरूकता बढ़ने के साथ यह हिस्सेदारी और बढ़ने की उम्मीद है।
संरचनात्मक चुनौतियों के साथ वृद्धि
उत्साह के बावजूद चुनौतियां वास्तविक हैं। 2018 के बाद बड़े लैब-ग्रोन स्टोन्स की थोक कीमतों में तेज़ गिरावट आई है। उद्योग जगत का मानना है कि यदि ब्रांड केवल कीमत पर प्रतिस्पर्धा करेंगे तो श्रेणी का कमोडिटीकरण हो सकता है।
सर्टिफिकेशन भी एक उभरती चुनौती है। ग्रेडिंग मानकों में बदलाव और उपभोक्ता समझ के असमान स्तर के कारण शिक्षा और ट्रस्ट-बिल्डिंग अहम बने रहेंगे। जो ब्रांड अलग पहचान और भरोसा नहीं बना पाएंगे, वे कीमतों की होड़ में फंस सकते हैं।
श्रम से जुड़े असर भी दिखने लगे हैं। मार्जिन दबाव के साथ सूरत जैसे हब्स में पॉलिशर्स पर वेतन दबाव बढ़ा है, जिससे वैल्यू चेन में लाभों के वितरण पर सवाल खड़े होते हैं। फिर भी, उद्योग की राय स्पष्ट है—लैब-ग्रोन डायमंड्स प्राकृतिक हीरों को बदलने नहीं, बल्कि उनके साथ-साथ चलने आए हैं।
माधवन कहती हैं, “प्राकृतिक हीरे दुर्लभता और विरासत से जुड़ी खरीद के लिए प्रासंगिक रहेंगे। वहीं लैब-ग्रोन डायमंड्स एवरीडे लग्ज़री, सेल्फ-पर्चेज़, गिफ्टिंग और डिज़ाइन-फॉरवर्ड खपत में अग्रणी होंगे।”
अगले तीन से पांच वर्षों में दोनों के बीच का अंतर और स्पष्ट होने की उम्मीद है। कोचर जैन के शब्दों में, “लैब-ग्रोन डायमंड्स हीरों को नहीं बदल रहे—वे लोगों का ज्वेलरी से रिश्ता बदल रहे हैं।”