भारत का D2C (डायरेक्ट-टू-कंज़्यूमर) इकोसिस्टम पिछले पांच वर्षों में तेज़ी से बढ़ा है, लेकिन बड़े पैमाने पर स्केल करना अब भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। हज़ारों ब्रांड लॉन्च हो चुके हैं और कई शुरुआती रेवेन्यू माइलस्टोन पार कर चुके हैं, लेकिन बहुत कम ब्रांड सालाना ₹100 करोड़ के आंकड़े को पार कर पाते हैं। DSG कंज़्यूमर पार्टनर्स की एक नई रिपोर्ट के मुताबिक जो 100 से अधिक भारतीय D2C फाउंडर्स और ऑपरेटर्स के सर्वे पर आधारित है समस्या डिमांड या प्रोडक्ट-मार्केट फिट की नहीं है, बल्कि यह है कि ब्रांड स्केल करने की कोशिश कैसे करते हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 60–65 प्रतिशत भारतीय D2C ब्रांड ₹1–50 करोड़ के रेवेन्यू बैंड में ही अटके हुए हैं, जबकि बहुत कम ब्रांड ₹100 करोड़ तक पहुंच पाते हैं। यह वह चरण होता है जहां शुरुआती ट्रैक्शन तो मिल जाता है, लेकिन ग्रोथ के साथ यूनिट इकॉनॉमिक्स, टीम्स और ऑपरेटिंग सिस्टम्स पर दबाव बढ़ने लगता है।
100 से अधिक D2C फाउंडर्स से मिले इनसाइट्स बताते हैं कि भारत के सबसे तेज़ी से बढ़ने वाले ब्रांड केवल रफ्तार पर नहीं, बल्कि मजबूत बुनियादी बातों पर जीत हासिल करते हैं। स्पष्ट प्रोडक्ट-मार्केट फिट, डिसिप्लिन्ड डेटा ट्रैकिंग, मजबूत यूनिट इकॉनॉमिक्स, क्रिएटिव वेलोसिटी और रिटेंशन पर शुरुआती फोकस—ये सभी फैक्टर स्केलेबल ब्रांड्स को उन ब्रांड्स से अलग करते हैं जो एक स्तर पर जाकर ठहर जाते हैं। फाउंडर्स यह भी मानते हैं कि परफॉर्मेंस मार्केटिंग की गलतियां, प्राइसिंग में चूक और कमजोर क्रिएटिव सिस्टम्स, बजट की कमी से कहीं ज़्यादा ग्रोथ को धीमा करती हैं। तेजी से बढ़ते D2C माहौल में ऑपरेशंस, ब्रांड-बिल्डिंग और सप्लाई-चेन की क्षमताओं में अंतर, ब्रेकआउट ब्रांड्स और प्लेटो पर अटके ब्रांड्स के बीच खाई को और चौड़ा कर रहा है।
उद्योग विशेषज्ञों का मानना है कि यहीं पर कई ब्रांड तेज़ ऑनलाइन ग्रोथ को टिकाऊ स्केल समझने की गलती कर बैठते हैं।
थर्ड आई इनसाइट्स के फाउंडर और सीईओ देवांग्शु दत्ता कहते हैं, “ऑनलाइन स्केलिंग बहुत तेज़ हो सकती है, लेकिन यह CAC (कस्टमर एक्विज़िशन कॉस्ट) के लिहाज़ से बेहद कैपिटल-इंटेंसिव भी है। कड़ी प्रतिस्पर्धा, कम कस्टमर स्टिकिनेस और प्लेटफॉर्म्स की ताकत के कारण मार्केटिंग स्पेंड लगातार चर्न होता रहता है, जो बढ़ते ब्रांड्स के लिए बड़ा नुकसान है।”
CAC इन्फ्लेशन है असली बाधा
रिपोर्ट की सबसे अहम खोज यह है कि एक्विज़िशन एफिशिएंसी, बढ़ता CAC और अस्थिर ROAS ग्रोथ में सबसे बड़ी रुकावट हैं—जिन्हें फाउंडर्स ने फंडिंग या कैटेगरी एक्सपेंशन से भी बड़ी समस्या बताया। इसके अलावा, 70 प्रतिशत से अधिक ब्रांड्स कस्टमर एक्विज़िशन के लिए मुख्य रूप से Meta पर निर्भर हैं, जिससे वे ऑक्शन प्रेशर और प्लेटफॉर्म-वोलैटिलिटी के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
दत्ता इसे डिजिटल-ओनली माइंडसेट की सीमा से जोड़ते हैं। वे कहते हैं, “सीमित ऑफलाइन विस्तार ब्रांड्स को संकरे शहरी डिजिटल मार्केट्स में फंसा सकता है, जिससे बड़े पैमाने पर स्केल करना मुश्किल हो जाता है।”
ऑनलाइन परफॉर्मेंस मार्केटिंग पर अत्यधिक निर्भरता अक्सर ऐसी ग्रोथ दिखाती है जो डैशबोर्ड पर तो मजबूत लगती है, लेकिन कैश फ्लो के स्तर पर कमजोर होती है।
DSG कंज़्यूमर पार्टनर्स की वाइस प्रेसिडेंट पूजा शिराली कहती हैं, “DSGCP में जिन 90 से अधिक कंज़्यूमर ब्रांड्स के साथ हमने काम किया है, वहां एक बात साफ है—जो ब्रांड Meta के इकोसिस्टम में महारत हासिल कर लेते हैं, वे सिर्फ ग्रो नहीं करते, बल्कि अपनी पूरी ग्रोथ ट्रैजेक्टरी बदल देते हैं। स्केल के असली ड्राइवर्स वायरल मोमेंट्स नहीं, बल्कि वे लॉन्ग-टर्म फंडामेंटल्स हैं, जो ₹100 करोड़ जैसे माइलस्टोन्स को संयोग नहीं, बल्कि एक अनुमानित नतीजा बनाते हैं।”
ओम्नीचैनल क्यों है अनिवार्य
रिपोर्ट बताती है कि जो ब्रांड टिकाऊ तरीके से स्केल करते हैं, वे पेड डिजिटल एक्विज़िशन पर निर्भरता कम करते हैं और अपने डिस्ट्रीब्यूशन फुटप्रिंट का विस्तार करते हैं। हालांकि, ऑफलाइन विस्तार अपने साथ नई जटिलताएं भी लाता है।
दत्ता ज़ोर देकर कहते हैं कि ओम्नीचैनल कोई वैकल्पिक ऐड-ऑन नहीं, बल्कि एक रणनीतिक बदलाव है। “D2C ब्रांड्स को ऑनलाइन और ऑफलाइन रिटेल को मिलाकर एक ओम्नीचैनल अप्रोच अपनानी होगी, ताकि टिकाऊ और स्केलेबल रीच हासिल हो सके। ये चैनल बहुत अलग तरीके से काम करते हैं और मैनेजमेंट टीम्स को लंबे समय के लिए सही रणनीति और पूंजी के साथ तैयार रहना होगा।”
यह DSGCP रिपोर्ट की उस व्यापक समझ से मेल खाता है कि जब ब्रांड ग्रोथ के साथ अपने ऑपरेटिंग मॉडल्स को नहीं बदलते, तो स्केल टूटने लगता है।
डिजिटल चैनल्स के भीतर भी समय के साथ परफॉर्मेंस कमजोर पड़ती है। रिपोर्ट के अनुसार, 62 प्रतिशत फाउंडर्स ने क्रिएटिव फटीग की शिकायत की, जहां बार-बार एक जैसे क्रिएटिव्स बढ़े हुए खर्च के बावजूद ROAS बनाए नहीं रख पाते। वहीं, 55 प्रतिशत फाउंडर्स ने CRM और रिटेंशन में कम निवेश की बात स्वीकार की, और अधिकांश ब्रांड्स में रिपीट परचेज़ रेट सिर्फ 10–30 प्रतिशत ही है।
डेटा और एक्सपर्ट ओपिनियन दोनों एक ही निष्कर्ष की ओर इशारा करते हैं जो ब्रांड ₹100 करोड़ का आंकड़ा पार करते हैं, वे संरचनात्मक रूप से अलग होते हैं। वे सिर्फ टॉपलाइन ग्रोथ पर नहीं, बल्कि यूनिट इकॉनॉमिक्स, प्रोसेसेज़ और कैपिटल एफिशिएंसी पर ज्यादा ध्यान देते हैं।
दत्ता के शब्दों में, “जो स्केलेबल ब्रांड ग्रोथ का यह हंप पार करते हैं, उनकी लीडरशिप वैनिटी मेट्रिक्स के बजाय यूनिट इकॉनॉमिक्स और ओम्नीचैनल एक्ज़ीक्यूशन पर केंद्रित रहती है। शुरुआती चरणों में कैश हमेशा राजा था और आज भी है।”
वे आगे जोड़ते हैं, “एक्ज़ीक्यूशन की ताकत रणनीति जितनी ही अहम होती है। ऐसे ब्रांड्स टीमें बनाने और प्रोसेसेज़ को तेज़ी से दोहराने में सक्षम होते हैं, बिना हर बार सब कुछ दोबारा गढ़ने में समय, मेहनत और पैसा गंवाए और वह भी बिना लगातार CXO स्तर के हस्तक्षेप के।”
जैसे-जैसे प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है और पूंजी अधिक चयनात्मक हो रही है, अगली पीढ़ी के ₹100 करोड़ D2C ब्रांड्स की पहचान रफ्तार से नहीं, बल्कि कैश फ्लो को कंपाउंड करने, प्रोसेसेज़ को संस्थागत रूप देने और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स से आगे डिस्ट्रीब्यूशन को स्केल करने की क्षमता से होगी।